Tuesday 24 August 2010

रक्षा बंधन

२४ /८/२०१०
रक्षा बंधन -आज रक्षा बंधन है ! एक समय था जब हम बड़ी ख़ुशी और उत्साह के साथ इस पर्व का इन्तजार करते थे । समय बीतने के साथ भाइयों का नजरिया भी बदला वे इस बंधन को आशीर्वाद न समझ कर देने का पर्व मानने लगे । एक ने कहा राखी भेजने कि क्या जरुरत हम भाई बहन तो हैं न । बड़ी भाभी ने कहा जब तुम्हारे यहाँ नहीं मनाया जाता तो तुम न भेजा करो । मैंने नहीं भेजा एक वर्ष ऐसे ही सोचने में बीता । फिर मैंने अपने इतिहास में ,धर्म ग्रंथों में खोजा तो मैंने पाया कि यह पर्व तो सबके लिए है । यह देवो का पर्व है । अपनी रक्षा के लिए हम अपनों से बंधें रहे यही है रक्षा बंधन !
यह स्वेच्छा से वरण किया जाने वाला पवित्र बंधन है । आज यह त्यौहार सिर्फ सीमित रिश्तों तक ही सिमट गया है । यह पूरे समाज में ,हर वर्ग के लोगों द्वारा मनाया जाता था ।
श्री भागवत जी में है -सारी गोपियों ने श्री कृष्ण जी को रक्षा बांध कर अपनी शुभ भावनाएं प्रकट की थी ।
मंदिरों में यह 'श्रावणी पूर्णिमा 'बड़े धूम -धाम से मनाई जाती है । भक्त गणश्री कृष्ण को राखी (रक्षा सूत्र )बाँधते हैं । पंडित अपने यजमानो को आशीर्वाद के साथ राखी बाँधते हैं ।
यह रक्षा सूत्र शुभ घड़ी में ही बाँधा जाना चाहिए ।
घरो में घर के मुखिया को चाहिए इस दिन अपने इष्ट देव का पूजन करे ,सबको नमन करे ,वास्तुदेव को भोग चढ़ाये फिर अपने घर के सदस्यों को रक्षा सूत्र बांधे ।
श्री भागवत जी के दसवें स्कन्ध में है कि माता यशोदा ने श्री कृष्ण जी को राखी बांधी थी उनकी रक्षा के श्लोक भी पढ़े है । हम आज भी अपने बालकों कि रक्षा के लिए उन श्लोकों को पढ़ सकतें हैं ।
राखी बाँधने का मन्त्र -
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल : । तेन त्वां प्रतिबद्धामी रक्षे मा चल मा चल ।।
जिस राखी से शुक्राचार्य ने महाबलवान बली को सुरक्षा प्रदान की थी वही रक्षा मैं आज तुम्हे बांधता हूँ या बांधती हूँ ।
देवराज इंद्र की जीत के लिए उनकी पत्नी इन्द्रानी ने रक्षा बाँधी थी । यह पर्व अशुभ नाशक है ।
हम सब अपने प्रिय को ,जिनको हम प्यार करतें हैं उनकी रक्षा के लिए अपने इष्ट देव से प्रार्थना करतें हैं और प्रसाद स्वरूप रक्षा बाँधते हैं । रक्षा -बंधन का पर्व किसी सीमा में नहीं रखा जा सकता । आज यह पर्व एक ख़ास रिश्ते में बंध गया है ।




Friday 30 October 2009

मेरा परिचय

अपनों से अपनी बात -
मेरा जन्म कलकत्ता में हुआ । बचपन से जीवन के १८ बसंत वही देखा ।मेरे पिता बैंक ऑफ़ बरौदा में कैशियर थे । हम सब कलकत्ता में १०७ कॉटन स्ट्रीट में रहते थे । माता -पिता, मैं और मेरा छोटा भाई । हम जिस मकान में रहते थे वह तीन तलों का था । किराये के उस मकान में लोग भरे रहते थे । सुबह -शाम भीड़ सी रहती थी । सुबह १० बजे से शाम के ५ बजे तक मकान खाली रहता था । वह समय स्त्रियों का होता था ।
मकान के मालिक सबसे ऊपर रहते थे। वहीं से सबकी निगरानी थे। यदि कोई किराये दार अपने कमरे में एक कील भी ठोंकना चाहे तो बिना उनकी अनुमति के नहीं ठोंक सकता था । उसकी धौंस से सभी परेशान रहते की पता नही किस बात पर कह दे की मकान खाली करदो । कलकत्ते की वह जगह अनमोल थी जीवन की सारी जरुरत की चीजें मकान के नीचे ही उपलब्ध थी । हमारा स्कूल भी दस फर्लांग पर ही था । हमारे मकान का मालिक यादव था ,हीरालाल यादव वह रोज सुबह गंगा स्नान करने जाता था । पूरे मकान के लोग उसे बाबा कहते थे । वह जिस पर नाराज होता उसको बड़ी भद्दी -भद्दी गालियाँ देता । एक बार उसने एक किराए दार को बहुत मारा ।
इतना होने पर भी वह हम लोगों की इज्जत करता था क्यों की मेरे पिता बैंक में कैशियर थे वे उसके बैंक सम्बन्धी सारे काम कर दिया करते थे । वह सब से मनमानी किराया लेता पर हम लोगों से नही हम सब मात्र १७ रुपया में २० साल तक रहे । मेरे जन्म से पहले पिता और माँ रहते थे ।
उस समय के किराये दार भी आज की तरह नही थे । सब अदब से रहते थे । वह मकान पूरा भारत था वहाँ हर जाति और धर्म के लोग रहते थे ।
मुझे राजस्थान का जायका बहुत पसंद था । ये लोग मुझे प्रिय थे । उनके घर के रहन -सहन भी अपने से लगते सबसे बड़ी बात थी की ये लोग शुद्ध शाकाहारी थे । एक परिवार था जिनसे हम जुड़े थे अब वे नही रही जब कभी माँ कही बाहर जाती तो हम उनके पास रहते । आज मैंने जब अतीत में झाँका तो सबसे पहले मुझे अपनी मासी माँ का चेहरा दिखा । मैं आज वर्षों बाद इस ब्लॉग में उनको याद कर सकी -आपको नमन है मासी माँ !
वहां बंगालियों की जो बात मुझे अच्छी लगी वो था उनका संगीत प्रेम और पढने -लिखने की रूचि ,बंगालियों को भ्रमण का शौक भी बहुत होता है । बहुत साधारण से दिखने वाले भी छुट्टियों में किसी जगह घूमने जाया करते थे। मुझे उनके कमरे में जाने पर लगता की मछली की बू आरही है जबकि यह मेरा भ्रम था ,मछली उनका मुख्य भोजन है । ये लोग देवी दुर्गा की उपासना करते जो देखने लायक होता ,राधा -कृष्ण की भक्ती भी करते थे ।
सन १९७२ में जब वहां नक्सलियों का उपद्रव बढ़ा तो हमारा स्कूल जाना बंद करा दिया गया । पिता ने कहा स्कूल बहुत दूर पड़ता है पता नही कब क्या हो जाय ।
पूरे बंगाल में दहशत का माहौल था जगह -जगह से दिल को दहला देने वाली खबरें मिलती थी । उस समय मैं दसवी की छात्रा थी । आया जो हमें स्कूल ले कर जाती थी उसने कहा मुझे डर लगता है । अब तक हमलोग कलकत्ते के किराये के कमरे को छोड़ कर "लिलुया " नामक स्थान पर आगये थे और अब हमारा बड़ा सा घर था हमारे घर से स्कूल चार मील पड़ता था उस समय पैदल या रिक्शा ही स्कूल तक पहुँचने का साधन था । स्कूल जाना बंद हो गया ।
शादी कर दी गई उस समय १७-१८ की उम्र थी । पढ़ने का बहुत शौक था जीवन में कुछ बनना चाहती थी पर रो धो कर भी कुछ न हुआ । १९७२ /५ जून को शादी भी हो गई ।
सुलतान पुर के एक गाव महमूद पुर आई सारा बदला हुआ परिवेश मिला । बड़ा सा परिवार सब के लिए फर्ज की एक लम्बी फेहरिस्त भी मिली मैं अपनी तरफ़ से भरपूर करती पर कोई खुश न हुआ । आगे उलझन भरी जिन्दगी थी पर किसी तरह ऍम ऐ किया तृतीय श्रेणी से पास हो गई ६ साल का कांटो भरा जीवन ,मानसिक प्रताड़ना हद तक मिली । पर जीवन फ़िर भी जी लिया ।
१९७९/२२ अगस्त को माँ बनी विभूति की और १९८१ /२६ मार्च को विकास की माँ बनी । जीवन में पर्याप्त खुशी आई कोई कुछ भी कहता पर मैं अन्दर इतनी पूर्ण थी की कोई गम नही होता था ।
विभूति जब हुए तो २१ की रात घर वाले मुझे 'ईश करुनाश्रय' में छोड़ गए थे दूसरे दिन शाम ४.२० पर विभूति का जन्म हुआ रात को माता जी का आगमन हुआ महमूद पुर से ।
१९८१ में २६ मार्च की शाम को हम विभूति को लेकर फ़िर 'ईश करुनाश्रय 'आए साथ में कल्पना थी । रास्ते में मिश्रा जी मिले ९.५०.तक हम अस्पताल पहुँच गए । १० .१५ पर विकास का जन्म हुआ यह भी याद गार दिन साबित हुआ । जब विकास हुए तब सब लोग कलकत्ता में थे दो माह के बाद मई की छुट्टी में सब आए । एक बात यहाँ लिखना चाहती हूँ अपने ससुरालियों के दृष्टि कोण की -विभूति का नाम जब मैंने रखा तो मेरे स्वसुर जी ने कहा इसी नाम का मेरा एक हरवाह था मैं कट कर रह गई । फ़िर दूसरे पुत्र का नाम विकास रखा ।
मैं विकास को 'बिन्दु 'नाम से बुलाती जो मैंने माँ के ललाट से लिया था । घर वालों ने कभी नही पूछा की मेरे छोटे पुत्र का नाम क्या है जब वे २६ -२७ वर्ष के हुए तो उनके बाबा जी ने उनका नाम पूछा । इस समय वो लन्दन में हैं यह ख़बर पाकर ,उनका नाम पूछा ।
जब विभूति ३ साल के हुए तब चिंता हुई की बच्चों की पढ़ाई कैसे होगी । हमने एक झगडे वाला छोटा सा घर लिया । जगह अच्छी थी सस्ती थी और हम किसी तरह उसे ले सके सोचा किराये दार एक दिन खाली कर देगा ।पिता जी ने १० हजार की मदद की थी लड़ -झगड़ कर ये काम भी हुआ मेरा घर मेरा हो गया। किराये दार ने पैसे लेकर घर खाली किया । १९८४ में हम सुलतान पुर में ,अपने घर में आगये बच्चे पढने जाने लगे ।
दोनों बच्चों की पढ़ाई ,घर में रहने की छत ,जीवन यापन का खर्च और ब्यापार में संघर्ष सब एक चुनौती भरी राह से चलना था । पर संघर्ष की राह तो ऐसी ही होती है । अर्थ भाव था यह बात ध्यान में रख कर मैंने किसी तरह बी एड 'किया । कर तो लिया पर मेरा पहला लक्ष्य था मेरे बच्चें पढ़े । इनपर अगर ध्यान न दे पाई तो सब बेकार है और सामने एक लक्ष्य था ये दो चेहरे जिनके सामने हर दुःख छोटे हो जाते थे ।
किसी तरह सब चलता रहा मेरी आर्थिक हालत मेरे घर वालों को समय समय पर खुश होने और उपहास करने का मौका देते थे । घर का बड़ा जब निम्न दृष्टि रखे तो बाकी लोगों के लिए तो मार्ग बन ही जाता है ।
मेरे पास केवल ईश्वर की दी हुई आशा और शक्ति थी यही मेरा बल था और मेरे दो सुंदर बच्चे मेरी जीवन डोर को मजबूत बनाये रखने के साधन थे ।
समय अपनी गति से चलता रहा
बच्चों की पढ़ाई पूरी हुई विभूति अपने पिता के साथ पुस्तकों का काम संभालते हैं । विकास इंजिनियर हैं इस समय वो लन्दन में हैं । पुस्तकों के लिए एक छोटा सा मकान और बना विकास ने बनवाया अब हमारी पुस्तकें वहाँ भी हैं ।
अब मैं अपने पढने लिखने का शौक जो दबा हुआ था उसे पूरा करने के लिए सोचती हूँ । समय तो बहुत आगे चला गया है पर मन की उम्र नही होती एक आस अभी बाकी है ,अभी साँस भी बाकी है ,एक मुट्ठी आसमान की चाह जो निजी हो अभी बाकी है, काश की एक बार इन हाथों से कुछ ऐसा हो जाता की ईश्वर को अर्पित कर सकती और वो स्वीकार करते । तो विश्राम मिलता ।

विकास जब पहली बार लन्दन से आए तो एक लैपटॉप लेकर दिए । मैंने ब्लॉग के बारे में समाचार पत्र में पढ़ा था सोचा की ये मेरी इक्षा पूर्ति का अच्छा साधन बन सकता हैं मैंने लिखना चाहा । विकास ने ब्लॉग बना दिया मैंने लिखा 'धर्म ' 'भगवत से 'और 'चेतना '
तीन ब्लॉग हैं धर्म में मैंने बहुत कुछ अपने प्रमुख ग्रंथों से लिया है । मनुष्य के जीवन का उजला पक्ष कैसे उभरे यह उसमे है धर्म केवल शब्दों और कर्मकांडो तक ही नही हैं । हमारा धर्म सम्पूर्ण जीवन को धारण करता है ।

दूसरा है भागवत से इसमे मैंने भागवत के ३० अध्याय लिखे हैं भागवत में वर्णित ये ३० अध्याय विशेष हैं ,जो जिस कामना को लेकर इसका श्रद्धा से पाठ करेगा उसकी कामना पूर्ण होगी । मैंने इन ३० अध्याओं का वर्णन इसलिए किया की अधिक से अधिक लोग इसका लाभ उठा सकें । इसे पढ़े और उन्नति के भागी बने ।
चेतना मेरा तीसरा ब्लॉग है इसमे 'सफलता की ओर 'नामक एक ब्लॉग है यह मैंने युवाओं और किशोरों को ध्यान में रख कर लिखा है । आज का युवा धैर्य खो चुका है ,कर्मठता में पीछे होता जा रहा है । एक बार जीवन में निराशा मिलने पर हार जाता है । असफल होने पर हताशा का शिकार हो कर बैठ जाता है । मनुष्य अपना सर्वांगीण विकास कैसे करे इसको बताने का भरपूर प्रयास किया है । किशोरों के लिए यह लेख उपयोगी है । इसमे अनुभव की अधिकता है । मेरा पाठक इसे जरुर पढ़े ।
आने वाले साल में मैं बच्चों के लिए कुछ लिखना चाहती हूँ । मुझे बच्चे बहुत प्रिय है साथ ही वे हमारा कल सुनहरा बना सकते है अगर उनका पालन पोषण बेहतर हो । बेहतर पालन पोषण के लिए पैसे से अधिक जरूरत है स्वयं को मानक के अनुरूप ढालना । इसके लिए माता पिता को पहले से तैयारी करनी होगी यह सब हमारे शास्त्रों में है मैं इसे खोज कर आप तक पहुँचाउंगी ।
मैं गोपी गीत के माध्यम से अपने पाठकों को प्रेम की उच्चा अवस्था क्या है इसका वर्णन करुँगी आज जिसे लोग प्रेम कहते वह केवल सौदा है यह बताना चाहती हूँ । आज का प्रेम केवल मजाक है यह बताना चाहती हूँ की प्रेम किसे कहते हैं । ताकि हम अपने जीवन को सुंदर बना सकें प्रेम के नाम पर आज अपराध हो रहा है ।
यह सब मैं कर सकूँ लिखना मेरा पाथेय बने यही इक्षा है । शकुन



मुझे फूल ,पहाड़ों के साथ झरने ,पुरानी इमारतें बहुत लुभातें हैं । पुरानी इमारतों के खँडहर देखकर मन करता है चलो रुक कर पूछें कि तुम कितने भव्य थे ? तुममें कौन रहता था ?तुम्हारा अतीत क्या है ?
गहरे लाल गुलाब को देख कर नजर ठहर जाती है । मेरे गमलों में जब गहरे लाल गुलाब खिलतें हैं तब मैं बड़े प्यार से उनको तोड़ कर कुछ देर निहारती हूँ ,तोड़ने का मन नहीं करता पर कल वे मुरझा जायंगें इसलिए उनको छूकर ,निहार कर अपने देव के चरणों में अर्पित करके खुश हो लेती हूँ ।
मुझे ऋषिकेश में गंगा किनारे पत्थरों पर बनी श्वेत संगमरमर कि ध्यान मुद्रा में लींन शिव कि मूर्ति बहुत याद आती है । वह मूर्ति देखकर नजर नीचे को नहीं झुकती । शाम को जब सूर्य देव गंगा से मिलने को आये मैंने भी देखा वह अनुपम दृश्य और अपने अंग प्रत्यंग में नवीन चेतना का आभास पाया ।
कुछ देर बाद जब होश आया तो सबसे छुप कर मन ही मन सब समर्पित कर दिया ।